परी हूँ मैं, पंख कतर दोगे तो भी उड़ान थमेगी नहीं

साल 2009.. लगातार हर बार पति के साथ प्रेम के जिस्मानी उन्माद के बाद कितने ही दिन परेशां रहती थी,  पेट दर्द, श्वेत प्रदर,दुर्गन्ध और गीलेपन से.. गोलियां रख परेशां, दवा बेअसर…. कहीं जाना हो तो लाइनर्स यूज़ करो… उफ्फ कोफ्त होती है याद कर के। यह बार बार का यूरीन इंफेक्शन भी पति के कई औरतों के साथ संबंध की ही देन तो था ये सालों बाद समझ आया। पर इन सबसे बेपरवाह वो अपनी ज़िंदगी अपने तरीके जीता। छोटे बच्चे, बीमार पत्नी और घर-कमाई की फिक्र से बिल्कुल आज़ाद।

नील, कुरता पीछे से गन्दा हो गया है, यूज़ नहीं किया कुछ?

अरे, यार, अभी पंद्रह दिन पहले ही तो हुआ था, अब….. ???

अरे, हद ही करती हो नील, ये बीच के दिनों का रक्तस्राव.. पैप स्मीयर क्यों नहीं करवाती? कमज़ोर और बीमार, कब तक चलेगा ये सब…

बस जी, अब गायनेकोलोगिस्ट तक लेकर कौन जाए, पति तो बेवड़ा देर रात झूमता हुआ घर आता था, और कभी भोजन, कभी सिर्फ जिस्म से भूख मिटाता था। कभी सिर्फ मार कर खुश हो सो जाता। तो जी पेरेंट्स को लेकर डरते हुए गयी डॉक्टर के पास।  पैप स्मीयर बहुत दर्दनाक था। मुझे डीप चेक करना होगा, डॉक्टर बोली। तुम सहन कर लोगी या दर्द का इंजेक्शन दूँ। सह लूंगी,  सुनकर डाक्टर ने डीप चेकअप के साथ ही मुझसे कंसेंट लेटर साइन करवाया और कहा सर्विकल कैंसर है, बच्चेदानी के मुँह का कैंसर, फैल गया है, पर घबराओ नहीं। होश उड़ गए, सर चकराने लगा, पानी डॉक्टर। प्लीज़ मेरे पेरेंट्स को कैंसर मत बताना, हाथ जोड़ते हुए कहा था। ओके ब्रेवलेडी, कोशिश करते हैं टिश्यू जलाकर इसको बढ़ने से रोक पाएं। एनेस्थीसिया दिया, मॉम पास थी, उनसे और पापा से लेटर साइन करवाकर उनको बाहर भेज दिया और कोनेशन किया गया, यानी कैंसर वाले ऊतक जलाए गए।  फिर चला 6 माह रोज़ाना इंजेक्शन का दौर। शरीर कमज़ोर, बच्चा छोटा, स्कूल की जॉब और घर पर कोई सहयोग नहीं। चार दिन छुट्टी ली और फिर सब काम शुरू। साथ ही ड्यूटी से आते वक्त इंजेक्शन लगवाना रूटीन बन गया, डॉ ने लिम्का और फ्रूटी की बोतलें मेरे लिए अपने फ्रिज में रखवाई की ड्यूटी के बाद इतनी थकी हालत में इंजेक्शन कैसे दें।  डॉ, स्कूल प्रिंसिपल, कलीग्स और पेरेंट्स भगवान के भेजे फरिश्ते मिले वहीं रात को साथ न दे पाने पर राक्षस की गाली और मार।

इस तरह दो बार सर्विकल कैंसर की सर्जरी और ट्रीटमेंट करवा चुकी हूँ। तब बेटा आठ साल का  छोटा बालक था, और पति खून चूसने वाला जोंक। पेरेंट्स और स्कूल की प्रिंसिपल और सहयोगियों ने पूरा साथ दिया, साइकेट्रिस्ट भैया ने भी, क्योंकि उसी दौरान हताशा में सुसाइड की भी पूरी कोशिश की थी, डिप्रेशन और नींद की 30 गोलियाँ खाकर।

इलाज से ज़्यादा अपनों की प्यार और आत्मबल ही कैंसर जैसी बीमारी जिसके नाम से ही मौत की आवाज़ आती है, से बाहर निकलने में मदद करता है। डर के आगे जीत है। अब लगता है दूसरा जन्म, सेकंड इनिंग दी भगवान ने कुछ अच्छा करने के लिए। आज स्कूल लेक्चरर हूँ, लेखिका और कवयित्री भी, समाज सेवा मेरा धर्म बन गया है। लड़कियों की काउन्सलिंग कर जीवन उद्देश्य समझाना, कैरियर गाइडेंस, पढ़ाई के बाद कोर्स करवा उचित रोजगार इसी में आत्मसंतुष्टि मिलती है। अनेकों अवार्ड्स जीते, अभी दिसम्बर 2017 में फ़िल्मसिटी मुम्बई में टॉप 50 इंडियन आइकॉन अवार्ड और जनवरी 2018 में एम्पोवेरेड वूमेन अवार्ड भी मिला लेखन और समाजसेवा के क्षेत्र में। अनेकों साझा संग्रह के साथ एकल काव्य संग्रह “नीले अक्स” अक्टूबर 2017 में आया और अगला लघुकथा संग्रह “नीला उजास” प्रकाशनाधीन है। ज़िन्दगी ने दर्द दिये तो उससे निकल अपनी अलग पहचान बनाने का हौंसला भी। अब बेटा बाहरवीं में आ रहा है, आवारा पति को छोड़ कर 2016 से बेटे और पेरेंट्स के साथ खुश हूँ, दुनिया को नई नज़र से देख रही हूँ।

यह लेख लिखने का मकसद दुःख की मार्केटिंग नहीं, बल्कि उन सबके लिए इंस्पिरेशन बनना मेरा मकसद है जो कैंसर को सिर्फ मृत्यु समझ बैठे हैं। मौत तो आनी है फिर जो आज है क्यों न उसका जश्न मनाएं। क्यों न ज़िन्दगी की दूसरी पारी ऐसी खेल जाएं कि सबके लबों पे मुस्कान बिखेर जीने का नया हौंसला दे जाएं। बस यहीं दुआ है कि  बीमारी कोई हो, डॉ सही मिले, इलाज सही हो और अपने साथ खड़े मिलें…

परी हूँ मैं, पंख कतर दोगे तो भी उड़ान थमेगी नहीं.. यही मेरी टैगलाइन बन गई है।

कैंसर सरवाइवर नीलू ‘नीलपरी’ एक व्याख्याता, मनोवैज्ञानिक, लेखिका, कवयित्री, संपादिका हैं

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