Kal Ki Baat stories are all about things that happen to us, around us
प्रसिद्ध कहानीकार प्रचण्ड प्रवीर की ‘कल की बात‘ (सेतु प्रकाशन) एक लघुकथाओं का संग्रह है । लेखक प्रचण्ड प्रवीर को स्वर्गीय विष्णु खरे ने हिंदी कहानियों के इतिहास में सबसे बीहड़ प्रतिभा कहा है। पहल के संपादक और वरिष्ठ साहित्यकार ज्ञान रंजन ने पहल पत्रिका के –124वें अंक में इनकी कहानी प्रकाशित करते हुए प्रचण्ड को प्रतिभाशाली लेखकों में से एक रेखांकित किया है। वागीश शुक्ल और प्रयाग शुक्ल ने प्रचण्ड की जाना नहीं दिल से दूर और उत्तरायण-दक्षिणायन की कहानियों को कथाविधि तथा कथा रस में अपूर्व कहा है। सेंट स्टिफेन्स, दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत विश्व के अग्रिम पंक्ति के आलोचक-अध्येता प्रो हरीश त्रिवेदी ने भी उनकी किताबों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
इस पुस्तक में तीनों खंडों की तीन छवियां एक नई तस्वीर बना रही हैं । विषयों की विविधता लगभग 1000-1200 शब्दों में लिखी गयी इन लघुकथाओं में उत्तर भारत की साहित्यिक विरासत गीतों, ग़ज़लों और उद्धरणों में मौजूद है । ‘कल की बात‘के पात्र इतने पहचाने लगते हैं कि मानों हमारे बच्चे और पड़ोसी ही हैं ।
प्रचण्ड की किताब ‘कल की बात‘के तीन खंडों के शीर्षक जहाँ भारतीय शास्त्रीय संगीत के सरगम के पहले तीन सुरों का उपयोग करते है, वहीं इसके कथानक सांस्कृतिक औरहिन्दी साहित्य की समृद्ध साहित्यिक विरासतथाती को उजागर करते हैं। यह उद्धरण ‘गांधार‘ से है
Extracted with due permission from the author and publisher SetuPrakashan
सेक्रेटरी – कल की बात १८४
कल की बात है। जैसे ही मैंने टैक्सी में कदम रखा, बैठने के साथ मुझे लगा कि सीट पर कुछ रखा है। मैंने टटोलकर देखा। कीमती मोबाइल पाकर मैंने उसे ड्राईवर की तरफ बढाकर कर कहा, “यहाँ किसी का मोबाइल रह गया है।” ड्राईवर ने निश्चिन्ता से फोन लेकर स्टेयरिंग के आगे रखते हुए जवाब दिया, “अभी हवाई अड्डे की सवारी छोड़कर आ रहा हूँ। उसी का होगा।”
“फिर आप कैसे वापिस करेंगे?” मेरे सवाल पर ड्राईवर ने बड़ी सहजता से कहा, एक कंपनी के पते से उसे बैठाया था| वहीँ जाकर जमा कर दूँगा। कंपनी से काम – काज होता रहता है| यह तो आम बात है।”
“हाँ| फोन खो गया बिचारा कैसे संपर्क करेगा|” मेरी सहानुभूति पर ड्राईवर थोडा हँसा| नासमझी पर तरस खाकर बोला, “आजकल सबों के पास दो-तीन फोन होते हैं| दूसरा फोन होगा ही। अभी कॉल आ जायेगा।” ठीक वैसा हुआ भी।| एक मिनट के अन्दर वह कॉल आ भी गया।
“हाँ सर आपका मोबाइल तो यहीं रह गया हैं। गाड़ी में ही। हाँ, हाँ …मैंने देख लिया था|…सर मैं तो अभी गुडगाँव पहुँच गया हूँ|” ड्राईवर के सफ़ेद झूठ से मैं हैरान रह गया| ड्राईवर बड़े आराम से बात करता रहा, “अगर महिपालपुर में भी होता तो आकर दे देता| अब आप ही बताइए मैं क्या करूँ? मेरी ड्यूटी भी है|” कुछ देर तक ड्यूटी-ड्यूटी कहने के बाद उसने कहा, “आपके ऑफिस में जमा कर दूगाँ| वह से कोरियर से मँगवा लीजिएगा| देखिए सर, गुडगाँव में पहुँच गया हूँ वरना आ ही जाता|”
हमारी गाड़ी हवाई अड्डे से ज्यादा दूर नहीं थी| पर ड्राईवर की अपनी मर्जी| उसने फोन रखकर कहा, “बोल रहा था कि ड्यूटी छोड़कर आ जाओ। पाँच सौ रूपए दूँगा। अब पाँच सौ के लिए कौन जाएगा। दो-चार दिन बिन फोन के रहेगा तब मज़ा आएगा।|”
क्या अगर सवारी ने दो हज़ार की रकम कही होती तो वह मुझे छोड़कर हवाई अड्डे चला जाता? यह विचारने का प्रश्न था।
अरुणिमा अक्सर कैफेटेरिया में अकेली बैठी चाय पीती नजर आती थी। उसके उदास चेहरे को देखकर मैं उसके पास पहुँचा और उससे पूछ बैठा, “खैरियत तो है?” उसने ना में सिर हिलाकर कहा, “मेरा स्मार्टफोन खो गया। आज ऑफिस के लिए आ रही थी लगता है टैक्सी में ही रह गया।” मैंने पूछा, “तुम्हारे पास दूसरा फोन है?” अरुणिमा ने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं कितना बड़ा बेवकूफ हूँ। “मेरे पास तीन फोन रहते हैं। एक गुम गया है। दो हैं |” उसने दोनों फोन हाथ से निकाल कर मेज पर रख दिए।
“तुम इतने फोन कैसे संभालती हो ? मुझे तो एक फोन ही जी का जंजाल लगता है।” इस इंसानी कमजोरी पर खुदगर्ज औरतें कितना हँस सकती हैं मुझे मालूम हुआ। फिर मुझे एहसास हुआ दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है और मैं वक्त की गाड़ी के गुजर जाने की धुल के गुबार में खास रहा हूँ। एक फोन ऑफिस के दोस्तों के लिए। एक फोन ससुराल वाले लोगो के लिए। एक फोन मायके और कुछ खास दोस्तों के लिए। पहले दो फोन का पासवर्ड उनके पति को मालूम है। तीसरा फोन बहुत हो निजी है और किसी को उसका पासवर्ड नहीं पता सिवाय अरुणिमा के।
“कौन –सा फोन खोया?” मेरे सवाल पर अरुणिमा मुस्कुरा कर बोली, “ससुराल वालों के लिए जो था।” उसकी मुस्कराहट पर मैंने हँसते हुए कहा, “अरे फिर तो खुश हो जाओ। कुछ दिन सास से बात नहीं करना।” अरुणिमा ने अपनी मजबूरी का खुलासा किया, “नहीं अब उनको ऑफिस वाला नंबर देना पड़ेगा। अब वे कभी भी ऑफिस के समय भी फोन कर देंगी। या फिर सोच रही हूँ एक नया नंबर भी ले लूँ।” मुझे लगा कि हसीनाओं की मजबूरियाँ और उनके मसले समझने के लिए मैं अभी कच्चा हूँ।
शाम में पारों के साथ वापस टैक्सी में आते हुए मैंने उसे ये किस्सा बताया। पारो को अरुणिमा से हमदर्दी थी, क्योंकि उसे दिन भर ससुराल वालों की तरफ से धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक उत्तेजना वाले सन्देश खूब मिलाकरते थे जिसे चाहे – अनचाहे देखना पडता था। कॉलोनी के बहार वाले पार्क के पास पहुँचते ही मैंने पारो को कहा कि वह टैक्सी से अपने घर चली जाए क्योकि कुछ देर पार्क में बैठकर आराम करने के बाद ही सुनसान फ़्लैट पर जाया जायेगा। पारो ने कहा, “जैसी तुम्हारी मर्जी। तुम जैसे सनकी आदमी से भगवान लड़कियों को सुरक्षित रखे।”
पार्क में बेंच नुमा कुर्सी पर आँखे बंद करके मैं सोच रहा था कि इन्सान झूठ क्यों बोलता है? खो जाना कितनी तकलीफ दे सकता है ? बिना कुछ पाये कोई कुछ खो सकता है क्या? क्या खो देने से किसी को कुछ बुरा नहीं लगता ? मैं सोया अँखियाँ मीचे … यह गीत गुनगुना ही रहा था कि किसी ने मेरी आँखों पर अपनी हथेली रख दी। मैंने टटोलकर कहा, “कौन ?” किसी के हँसने की आवाज आयी। मैंने झट कहा, “लिटिल मरमेड ?” जवाब में ‘ऊ हूँ’ सुना। फिर मेरा तीर निशाने पर लगा, “बैंग-बैंग ?”