सुकृति तंखा
जब देखती कटते पेड़ों को,
वह आवाज़ देते – “हमे जीने दो” |
जब गुज़रती उस गन्दी नदी के पास से तो,
वह आवाज़ देती – “मुझे जीने दो” |
सांस लेती प्रदूषित हवा में जो,
वह आवाज़ देती- “मुझे जीने दो” |
दुखी हो गयी देखकर इनकी दशा को,
बार-बार वही आवाज़ गूंजती- “मुझे जीने दो, मुझे जीने दो” |
चुपचाप बैठकर थक गयी थी,
कुछ तो करना पड़ेगा- ऐसा सोच रही थी |
यह बात मैंने सब जगह फैलानी चाही,
बच्चे, बूढ़े, जवान, किसी से मंजूरी न पायी |
सब को मैं बहुत समझाती,
पर हर बार एक ही जवाब पाती |
कोई कहता- मुझे काम है, जाने दो,
तो कोई कहता- मेरे पास समय नहीं है, माफ़ी दो |
इस लड़ाई में मैं अकेली रह गयी,
क्या लोग समझ नहीं पा रही थे, क्या गलत है क्या सही?
काटते गए पेड़, करते गए मैला हवा-पानी को,
अब तक क्या फ़र्क पड़ा था, मेरे बोलने से पड़ेगा जो |
थक चुकी थी समझा-समझाकर सब को,
जब विनाश होगा, तभी यह मानेंगे अब तो |