विश्व पर्यावरण दिवस विशेष: मुझे जीने दो

 विश्व पर्यावरण दिवस विशेष: मुझे जीने दो

सुकृति तंखा

जब देखती कटते पेड़ों को,
वह आवाज़ देते – “हमे जीने दो” |
जब गुज़रती उस गन्दी नदी के पास से तो,
वह आवाज़ देती – “मुझे जीने दो” |
सांस लेती प्रदूषित हवा में जो,
वह आवाज़ देती- “मुझे जीने दो” |
दुखी हो गयी देखकर इनकी दशा को,
बार-बार वही आवाज़ गूंजती- “मुझे जीने दो, मुझे जीने दो” |

चुपचाप बैठकर थक गयी थी,
कुछ तो करना पड़ेगा- ऐसा सोच रही थी |
यह बात मैंने सब जगह फैलानी चाही,
बच्चे, बूढ़े, जवान, किसी से मंजूरी न पायी |
सब को मैं बहुत समझाती,
पर हर बार एक ही जवाब पाती |
कोई कहता- मुझे काम है, जाने दो,
तो कोई कहता- मेरे पास समय नहीं है, माफ़ी दो |
इस लड़ाई में मैं अकेली रह गयी,
क्या लोग समझ नहीं पा रही थे, क्या गलत है क्या सही?
काटते गए पेड़, करते गए मैला हवा-पानी को,
अब तक क्या फ़र्क पड़ा था, मेरे बोलने से पड़ेगा जो |
थक चुकी थी समझा-समझाकर सब को,
जब विनाश होगा, तभी यह मानेंगे अब तो |

 

 

 

उस समय मेरी ज़ुबान पर मानो सरस्वती बैठ गयी,
अगले ही दिन से विनाश की तारीख शुरू हो गयी |
पानी ने मचाई हर जगह तबाही,
बाढ़, हर जगह थी आई |
आँधी ने कर दिया सब का बुरा हाल,
पेड़ गिरने से न जाने कितने लोग हो गए बेहाल |
ऐसा लगा जैसे- हवा, पेड़, पानी- तीनों कह रहे हों एक ही बात,
तुमको क्या लगा, हम पर अत्याचार का न देंगे जवाब ?
हम सब की विनती तुम ने न मानी,
अब देखो, याद आ गयी न नानी ?

दुखी हो गयी थी मैं बहुत ज़्यादा,
मेरी बात अनसुनी करने का क्या हुआ कुछ फ़ायदा ?
कैसे रोकूँ यह सब इस सोच में डूब गयी,
लेकिन उसी समय मेरी नींद खुल गयी|
खुशी और दुःख का एक साथ हुआ मुझे आभास,
दुःख इसका कि ऐसा सच में हो सकता है,
खुशी इसकी कि ऐसा नहीं हुआ, कि अभी भी कर सकते हैं प्रयास |
उस दिन से मैंने यह मान लिया था,
हवा, पानी, पेड़ को बचाऊँगी यह ठान लिया था |

उम्मीद थी, असर होगा अब की बार,
इसलिए सब जगह किया इसका प्रचार-प्रसार |
“वृक्षों को काटो नहीं, लगाओ,
केवल बोलो मत, हाथों को काम में लाओ |”
“गाड़ियाँ कम चलाओ,
हवा को प्रदूषित होने से बचाओ |”
“नदियों को मैला मत करो,
सब मिलकर करेंगे प्रयास तो होगा कुछ तो |”

इस बार हुआ मेरे सपने की बिल्कुल विपरीत,
लोगों का साथ मैंने पाया और हुई मेरी जीत |
भरोसा मुझे अब हो गया था,
अगर सब साथ हों, तो देश बच सकता था |

मिले मुझे वही पेड़, नदी और हवा, जब लौट रही थी घर को,
पर इस बार कह रहे थे- “हम जी रहे हैं, धन्यवाद आपको” |
उस वक्त मुझे जो खुशी अनुभव हुई वो प्रकट नहीं कर पाऊँगी,
पर शब्दों के माध्यम से हर वक्त आपको बताती जाऊँगी |

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