भारतीय मर्द को कल भी और आज भी सिर्फ भोग्या और अन्नपूर्णा ही चाहिए। जो बैडरूम में मेनका बन कर मात्र उनका मनोरंजन, घर के बाहर सर से पांव तक ढकी सीता, रसोई में अन्नपूर्णा की प्रतिमा मास्टरशेफ, उनके बनाये घरनुमा पिंजरे की एवं वंश को बढ़ाने वाली संतानों की बेस्ट केयरटेकर, नौकरी और घर की दोहरी मात खाते हुए भी बनी रहने वाली मूक एटीएम मशीन, उनके रिमोट बटन पर हंसने-बोलने-चलने वाली कठपुतली बनी रहे। इससे इतर बोली या कुछ अपने मन की करे तो अपना मर्द ही नहीं समाज भी कुलटा, बदचलन और त्रिया चरित्र की उपाधि सहज ही दे देता है।
तुम जो कहते हो वक़्त बदल गया है, पर मर्द और औरत का जड़वत रिश्ता कुछ और ही कहानी बयां करता है। एक आदमी सगी बेटी, माँ, बहन का बलात्कार करके भी पाक है, पर लड़की पर कोई फबती कस दे तो लड़की गलत। लड़की का किसी को भाई बुलाना भी शक के दायरे में, अगर महिला मी-टू में अपने साथ हुए शोषण पर बोले-लिखे तो भी नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली कह दिया जा रहा।
अपने साथ घटित एक हादसे का उल्लेख यहां कर रही हूँ…
इससे बुरा क्या हो सकता है आप शाम 6.30 बजे सोलह वर्षीय बेटे के साथ e-rickshaw में बैठे हैं और कुछ दूरी पर जाने पर एक नौजवान आपके सामने आकर बैठता है। आप और बेटा बातचीत कर रहे हैं और वो लड़का अपने मोबाइल पर बिजी दिखता है। अचानक आपको अपने पैर से ऊपर कोई स्पर्श और पलाज़ो हटता सा महसूस होता है। आप चीख पड़ते हैं। रिक्शा रोकने को बोलकर उस बदतमीज़ को नीचे उतरने को बोलते हैं। कुछ नहीं मैडम जी पैर हटा रहा था, बोलकर अपनी सफाई देता है। बेटा भी समझ नहीं पता क्या हुआ। कमीने तुझे बताऊं, लेकर चलूँ पुलिस स्टेशन। अपनी माँ बराबर से ऐसी बदतमीज़ी। रिक्शावाला उसे आगे बैठने को बोलता है। पता नहीं कहाँ से साहस आता है चार गाली उसको भी देकर, बेटे को 100 नम्बर घुमाने का बोलती हूँ। एक सेकंड में नौ दो ग्यारह हो जाता है लड़का…. कांपती जाती हूँ, कुछ समझ नहीं आता। बेटा पानी देता है, आंखें भी पानी-पानी हुई जाती हैं। मम्मा आपने बोला क्यों नहीं उसको मार-मार के मूँह तोड़ देता। ‘पता नहीं बेटा उस आवारा के कौन कौन साथी हों, रिकशवाला भी। कल को अकेले में तुझे या मुझे कुछ और…उफ़्फ़फ़फ़फ़फ़ ‘
इस उम्र में भी मोलेस्टेशन…. पूरा सूट पहने, बेटे के साथ रहते हुए भी। अब कहिए किसकी बेटी, किसकी बहन, किसकी माँ यहाँ सुरक्षित…!! अब कहिए औरत कम कपड़े पहनी थी इसलिए भूत चढ़ा लड़के पर… “कोढ़ सा फैला हुआ है प्रतारणा और यौन-शोषण का”। रोक तो नहीं सकते किसी की ज़ुबान, पर सोच तो बदल सकते हैं।
यहां चिंता मुझे सिर्फ अपनी नहीं, उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जहां बचपन से कॉलेज तक हज़ारों ऐसे किस्से देखे, सुने, और इससे कहीं ज़्यादा भुगते है जिसके आगे ये सब कुछ भी नहीं, पर डर उन मासूम बच्चियों के लिए लगता है जो न इतनी परिवक्व न मानसिक रूप से इसे समझने लायक हैं, न प्रतिकार ही करने लायक… कब कौन मामा, चाचा, अंकल, पड़ोसी, ड्राइवर, चपरासी, फायदा उठा जाए वे समझ भी नहीं पाती हैं।
अब तक देखती हूँ किसी भी उम्र की लड़की/औरत सुरक्षित नहीं। पर रील लाइफ और रियल लाइफ में ये फर्क कि वहां रील लाइफ में सफलता की सीधी चढ़ कर बाद में शोषण का नाम दे दिया जाता, पर रियल लाइफ में पेरेंट्स, समाज के डर से होंठ सील लिए जाते हैं, जब माता-पिता लड़की को ही या तो गलत ठहरा देते हैं या चुप रहने का आदेश देते हैं। पर ये भी 100% सच है कि ऐसी कोई लड़की/नवयुवती/बुज़ुर्ग महिला नहीं जिसने उम्र के किसी पायदान पर शोषण न सहा हो। परन्तु समाज के दोगले चरित्रों को उजागर होने के डर से सारा दोषारोपण औरत के सर ही मढ़ा जा रहा। कब बाहर आएंगे हम इन डबल स्टैंडर्ड्स की दोहरी मानसिकता से।
रील लाइफ (फिल्मी दुनिया) का सच तो हम नहीं जानते, परंतु वहाँ से शुरू हुई #मी_टू मुहीम के तहत रियल लाइफ के पीड़ित लोग जब लिखने, बोलने लगे हैं, बहुत से अपनों के मुखोटे उतर रहे हैं। लड़कियां पहले खुल कर प्रतिकार नहीं कर सकी, पर आज सबकी बात सुनी जा रही है। अगर इसी तरह एकजुट होकर देशभर में मुहीम चले तो शायद लोगों में डर बन जाये। कानून बनाने से जो आज तक नहीं हुआ वो बागडोर अगर समाज ले ले एक सामुदायिक जनसमूह की तरह तो समाज में शोषण की तस्वीर बदल सकती है।
तथास्तु
नीलू ‘नीलपरी’ व्याख्याता, मनोवैज्ञानिक, लेखिका, कवयित्री, संपादिका हैं