सुहाग के सारे चिन्ह ज़रूरत से ज़्यादा स्पष्ट रूप में लगाए हुए, अजब-गजब इश्टाइल में फोटो खिंचवाती, सोशल मीडिया पर पोस्ट करती चालीस-पैंतालीस के पार की स्त्री जब अपने पति के एगोइस्ट, माँ के एप्रन से बंधे हुए, सिर्फ खुद के कैरियर पर ध्यान देने वाले मोरोन जिसको मेरी-मेरी इच्छाओं की परवाह नहीं के दुखड़े सुनाए तो ऐसा नहीं लगता जैसे बी. एम. डब्ल्यू. से हाथ में कटोरा लिए उतरता कोई भिखारी.. अरे भई ईगो का खेल तो आज पेरेंट्स और बच्चों में भी है, तो क्या हर किसी का यह दुखड़ा रोना ज़रुरी हो गया? जब एक साथ इतने साल से रह ही रहे हैं तो कुछ तो कदम दोनों ने उठाये ही होंगे आपसी सामंजस्य बैठाने के लिए। अगर पति से अनबन कैरियर और समयाभाव को लेकर है, तो शादी के इतने साल में आप दोनों मिलकर उसको बातचीत से सुलझा ही सकते हैं। चाहें तो परिवार और बच्चों के साथ-साथ मैरिज कॉउन्सिलर की भी मदद लेना भी आज कोई मुश्किल नहीं। जहाँ प्रॉब्लम नहीं वहां भी खुद मुसीबत ढूंढ-ढूंढ खड़ी करनी कौनसा ज़रूरी है।
अब एगो-क्लैश को लेकर पति का दुखड़ा रो दिया, या ससुराल पक्ष से प्रॉपर्टी के बंटवारे को लेकर कलह या घर के काम को लेकर सास से रोज़-रोज़ की चिकचिक, क्या इसको आप उन स्त्रियों की स्थिति से मुकाबला करेंगे जो कलुषित रिश्ते को ढोते हुए तिल-तिल मरती रहती हैं। जो बच्चों का, अपने पेरेंट्स और समाज का मूँह देख मज़बूरी में मार के दाग और आंखों के काले घेरे हिकी की तरह मेकअप की लेयर्स में छुपा घर-नौकरी-समाज सब जगह अकेली मर्द और औरत की दोहरी भूमिका निभाती हैं। जानती ही क्या हैं सुहाग चिन्हों से लैस ये तथाकथित रुदालियाँ उन स्त्रियों के बारे में जो पति के एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर की या रखैल के साथ रंगरलियों की तस्वीरें देख, आत्मसम्मान को या तो ताक पर रख घुटती रहती हैं या फिर एक रोज़ हिम्मत करके बच्चों की मॉम-डैड दोनों बनने का निर्णय ले डाइवोर्स पिटीशन फाइल कर देती हैं। फिर शुरू होते सही-गलत इल्ज़ामों, झूठ-सच की तकरारों, अपने और बच्चों की मानसिक शांति के हनन और वकीलों की मूँहमांगी फीसों में ही घुलती जाती उनकी ज़िंदगी को क्या कॉम्पेयर करेंगी अपनी मौजमस्ती की ज़िंदगी से, जब पैंतालीस के बाद पति आपके साथ समय व्यतीत न कर पाने की आत्मग्लानि में आपको वर्ल्ड टूर करवाये, खूब ज़ेवरातों से आपके बर्थडे, वेडिंग एनीवर्सरी पर आपको खुश करे। और आप हॉलीडे पिक्स के साथ भी मिस यू, जाने किसको लिखती जाएँ।
सोचा कभी जो स्त्री पहले चौड़ी लाल बिंदी और तरह-तरह के स्टाइल से सिंदूर लगा मांग सजाती थी, कैसे आईना देखती होगी। क्या उसे अपना चौड़ा माथा “चाइल्ड इज़ आ ब्लेंक स्लेट” की याद नहीं दिलाता होगा। मंगलसूत्र जो हर स्त्री का सबसे अज़ीज़ सुहागचिन्ह, जब जेवेलर से पेन्डेन्ट निकाल, गोल्ड चेन में डाल दो बोलती होगी, तो कनखियों से अपनी ओर घूरती नज़रों से अपनी ही आंखों के कोर उमड़ आई खारी बूंदों में पति की रखैल को देखती होगी या अपने सात फेरों को..जब काले मनके कटर से कट-कट होकर ज़मीन पर बिखरे होंगे, क्या उसके सीने ने उतनी देर सांस नहीं रोका होगा, जितनी देर में दिमाग की शिरायें जमकर ब्रेन स्ट्रोक तक ले जाती हैं? पर क्या समझा इस बात को कि वो तो मर भी नहीं सकती.. मॉम और डैड दोनों जो हैं वो।
अपने दम पर समाज से भिड़ती दुर्गा सी ये नारियां खुद को सांत्वना देने यही सोचती, सुहाग चिन्हों का क्या, बिनब्याही लड़कियाँ भी तो मांगटीका लगाती हैं आजकल। कभी लगाकर देखती, फिर हटा देती, जाने लोग क्या कहेंगे? कशमकश छोड़, उसे तो जीना है दकियानूसी समाज के बनाये इन दायरों के बाहर, अपने बच्चों और समाज की उत्पीड़ित नारियों के लिए एक सुरक्षित समाज की कल्पना को खुले पिंजरे से उड़ती तितली जैसे उन्मुक्त-ऊंची उड़ान देनी है। जान से मारने की धमकियों वाले पति और उसके लिए ओढ़े सुहाग चिन्हों के आडम्बर से परे एक सुकून भरा जीवन, जिसपर उसका सिर्फ उसका हक़ है… डर अपनी मौत का नहीं, डरती सिर्फ अपने बच्चों के लिए हैं, क्योंकि माँ के मरने के बाद उनके बच्चों का कोई नहीं होता…वे अनाथ हो जाते हैं..माँ का सुहाग चिन्ह हैं सिर्फ और सिर्फ अपने माथे पर अपने बच्चे की किस और गले में बच्चे की बाहों का स्नेहिल हार..
नीलू ‘नीलपरी’ व्याख्याता, मनोवैज्ञानिक, लेखिका, कवयित्री, संपादिका हैं