औरत क्या है? क्या सिर्फ एक शरीर, एक अंग, नर और मादा के भेद का निर्णायक मापदंड है?
क्या पितृसत्तात्मक सोच आदमी और औरत के भेद को बढ़ाने के लिए बनी या समाज को समझने और सामाजिक कार्यप्रणाली को एक सरलतम रूप देने के लिए बनी? सभी अपने बेटे, बेटी, पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, दोस्त-सखी को बहुत आदर और प्यार देते हैं, और नारी या मर्द के बिना समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते।
हम सब यह मानते हैं कि मर्द के बिना नारी और नारी बिना मर्द और उसके परिवार का कोई वजूद नहीं है। अगर पति और पत्नी जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं और अगर एक पहिया किसी कारणवश खत्म हो जाता है या उखाड़ कर अलग कर दिया जाता है तो जब दूसरा पहिया जो परिवार का सारा बोझ अपने पर ले लेता है, बिना नया पहिया लगाए, तो क्या वो परिवार ज़िंदा नहीं रहता? या क्या वो व्यक्ति विशेष अपने कर्तव्यों से मुख मोड़ अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है?
एक नारी अगर किसी भी वजह से अपने बच्चों का पालन अकेले, अपने दम पर, इज़्ज़त की ज़िंदगी जीते हुए करती है तो निश्चय ही उसके बच्चे दुनिया में एक उच्च मुकाम हासिल कर अपनी माँ का नाम रोशन ज़रूर करते हैं, जिसके कई उदाहरण हमारे आसपास ही मौजूद हैं। फिर क्यों हर बात के लिए मर्द का मुहँ देखना? क्यों दुराचार सहना?
क्यों हम यौन शोषण में लिप्त व्यभिचारी और अनेक व्यसनों में लिप्त अपने जीवन के मर्दों को दुनिया से छुपाते हैं, कानून से बचाते हैं? उन्ही में से कुछ मीडिया की दयादृष्टि पा सुर्खियों में आ जाते हैं, पर बाकी का क्या? वो तो हर रूप में हमारे आसपास अंकल, भैया, दुकानदार, पड़ोसी, ड्राइवर आदि अनेक रूप में हमारी और हमारी बच्चियों का काल बन मंडराते हैं। क्यों नहीं हम भेड़ की खाल में छुपे भेड़ियों का असली चेहरा दुनिया के सामने उजागर करते?
मैं किसी धरने या व्हाट्सएप/फेसबुक पर डीपी काली करने का विरोध नहीं कर रही, पर हमारी डीपी शायद ऐसे मर्द नहीं देख पाएं जो इन व्यसनों में लिप्त हैं, क्योंकि हमारे फेसबुक मित्रों को कई मापदंडों पर खरा उतरने के बाद ही हमने चुना है। धरने, प्रदर्शन मात्र मीडिया में अपनी उपस्थिति ही दर्ज कराने का माध्यम है, होहल्ला किया, सेल्फी ली और चेप दी।
क्यों नहीं हम ऐसे भाई, बेटे, पति, ससुर, देवर, जीजा, चाचा, मामा, ताऊ, बहनोई, कज़िन, दोस्त, पड़ोसी, नेता, बॉस, आदि का बहिष्कार करते जो दुराचारी, व्यभिचारी, रेपिस्ट, यौन शोषण में लिप्त हो? क्या यह कदम धरने, प्रदर्शन, कैंडल मार्च, डीपी काली करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं? ज़रा सोचिए……
मैं यहां पुरुष के अस्तिस्त्व को कम करने या उनके बिना संसार की कल्पना करने की बात कर रही हूँ, वरन सिर्फ काली भेड़ को उजागर कर उसके सार्वजनिक बहिष्कार की बात कर रही हूँ।
अपनी सोच को संकुचित करके अगर अन्यथा लेंगे तो मेरी गलती नहीं।
जब द्वापर युग में महाराज धृतराष्ट्र के राजमहल में दौपदी का चीर हरण उनका अपने ही भाई रूपी देवरों के हाथ हो रहा था और महारानी गांधारी आँखों पे पट्टी बांधे चुप थी और अन्य गुरुजन एवं महात्मा भीष्म सहित बुज़ुर्ग चुप थे.. वही हाल आज आँखों पर पट्टी बांधे क़ानून का भी है..
तब भी अबला पांचाली (जिस बेचारी का शायद रोज़ ही बलात्कार 5 भाइयों में बंट कर होता होगा) के उद्धार के लिए श्री कृष्ण आये थे.. आज भी देश/समाज ऐसे ही वीर पुरुष के अवतरित होने की आशा कर रही जबकि रोज़ के रेप हमारी बहनों/बच्चियों की ही नहीं समाज की आत्मा को भी चीर रहे हैं… क्या वह युग पुरुष, वो पालनहारा अवतरित होगा या हम सब मिलकर इस समस्या का सामना करेंगे?
यहाँ यह बताना जरूरी है कि बेटियों के हक की लड़ाई लड़ने और स्त्री अधिकारों पर लिखने वाले कुछ लेखकों, समाजसेवियों की तरह मेरी भी बेटी नहीं है, फिर भी अगर मैं समाज की बेटियों के लिए लिख सकती, काम कर सकती हूँ तो बेटियों के माता पिता, भाई कैसे चुप हैं… क्या शर्म आती है समाज की समस्या पर लिखते या कार्य करते? या वे इस इंतज़ार में हैं कि उनके घर की बहु/बेटी पर बलात्कार हो?
दुखों के पहाड़ से भी न डरने वाली नारी को दुर्गा और चंडी बनते देर नहीं लगती। पर वह तब तक अपना धैर्य नहीं खोती जब तक अति न हो जाए। बस कुछ सामाजिक मजबूरियां व् पुरुषवर्ग की स्वीकृति, चाहे पिता, चाहे पति, चाहे बेटा, उसको लेनी ही पड़ती हैं अगर उसने अपना जीवन सुचारू रूप से चलाना है तो। वह आज़ाद ज़रूर है पर आज भी स्वतंत्र विचरण तब तक नहीं कर सकती जब तक उसके जीवन के महत्वपूर्ण पुरुष उसके साथ कन्धा मिलाकर न खड़े हों। यही हमारे समाज की वो बेड़ियाँ हैं जिन्हें तोड़ना चाह कर भी नहीं कर सकती। एक साथ बहुत से उत्तरदायित्व सम्भालती आज की ‘सुपर वुमन’ कशमकश में है कि अगर लीक से हटकर कदम उठाया तो क्या उसे समाज स्वीकार करेगा? फिर कैसे वो कानून अपने हाथ में ले बलात्कारियों का निहत्थे मुकाबला करे?
यहाँ द्रौपदी का नाम लेना काफी लोगों को नागवार गुजरेगा। पर क्या स्त्री भोग्या है.. फल है कि भाई बाँट लें और मिलकर चीर कर खा लें? क्या हमारे समाज में ‘बहु पत्नी विवाह’ की नींव ऐसे ही किस्सों से नहीं रखी गयी होगी? क्यों नहीं प्रतिकार किया गया उस समय? आप लोग यह भी सोच रहे होंगे कि मैंने द्रौपदी के साथ घटित को बलात्कार कैसे कहा। पर आप लोग इस बात पर पुनः विचार करें कि क्या अपने से ताल्लुक रखने वाली किसी भी महिला का पाँच पतियों में बंटना उन्हें स्वीकार्य होगा?
जब औरत भोग्या नहीं तो उसका इस्तेमाल कुत्तों की तरह नोचने के लिए क्यों? क्यों नहीं बनता कोई कड़ा क़ानून इस देश में जहाँ एक नारी की अस्मत (जिसका मापदंड एक अंग विशेष माना गया है) हर कदम सड़क पर उतारी जाती है। जब हर देश में रेप की सजा फांसी है तो मेरी माँ भारती अपनी भेड़ों की हिफाज़त करने के लिए ऐसे गिद्धों को नोच नोच, तिल तिल तड़पा कर मौत क्यों नहीं देती?
नीलू ‘नीलपरी’ व्याख्याता, मनोवैज्ञानिक, लेखिका, कवयित्री, संपादिका हैं