“आत्महत्या विकल्प नहीं”

जब नारी खुद में रखती इतना दम
बिना उफ्फ झेले घर-समाज के गम
पलायन ही क्या नीलपरी मुसीबत का अंत
क्यों आज नर में दमखम इतना कम
वैसे तो हर एक जान की कीमत अनमोल है, परन्तु इतने उच्च पदासीन व्यक्ति का ऐसा दुःखद अंत सामाजिक और राष्ट्रीय क्षति भी है।
तीस वर्षीय आइपीएस सुरेंद्र दास की आत्महत्या चौंकाने वाली है। वह ज़हर खाकर पांच दिन मौत से लड़ते हुए हार कर काल का ग्रास बन गए। पुलिस और परिवार दोनों ने आत्महत्या के पीछे पत्नी से विवाद को मुख्य वजह करार दिया है। पांच सितंबर को आईपीएस सुरेंद्र दास ने सल्फास खाया था। उनके पास से पुलिस ने लाल रंग की सुर्ख स्याही से लिखा सात लाइन का सुसाइड नोट बरामद किया, जिसमें सुरेंद्र ने पत्नी डॉ. रवीना सिंह को आइ लव यू लिखते हुए कहा था कि उनकी मौत के पीछे किसी का हाथ नहीं है. हालांकि उन्होंने यह भी लिखा था कि रोज-रोज की कलह से तंग आकर वह आत्महत्या का फैसला ले रहे हैं. परिवार वालों के द्वारा कहा जा रहा है कि रवीना को बेहद प्यार करने के बावजूद सुरेंद्र दास रोज-रोज की मियां-बीवी किचकिच को सहन नहीं कर पाए और सल्फास खा लिया।
आत्महत्या कायरता नहीं, परंतु गलत सिस्टम (चाहे पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक या जीविका से जुड़े मुद्दों) के खिलाफ घोर हताशा की स्थिति को दर्शाता है। जब व्यक्ति हालात से लड़ते हुए खुद को इतना निराश पाता है और असहाय होकर सोचता है कि अब सुधार की कोई स्थिति ही नहीं बन सकती तो गहन अवसाद उसे घेर लेते हैं। उसपर अगर मुद्दा ऐसा हो कि आप उसे किसी अपने से विमर्श भी नहीं कर पा रहे तो एक इमोशनल व्यक्ति मौत की सोच रखते रखते, “खुद को मार लूंगा” भी अपनों के सामने कितनी ही बार बोलता है। लोग महज़ मज़ाक समझकर, “जा मर जा” या “इतना आसान नहीं मरना” आदि बोलकर उसकी इच्छा को और सुदृढ़ करते जाते हैं। और एक दिन ऐसी ही खबर आती है, सुसाइड नोट के साथ….  पर आत्महत्या में सफलता न मिलने की स्थिति में ‘शेर आया शेर आया’ वाला किस्सा ही दोहराया जाता है, कि बड़ा चला था मरने, जिससे अवसाद और गहन होता जाता है.. लोग सिर्फ अटकलें लगाते रह जाते हैं।
परंतु किसी भी तरह के डिप्रेशन के लिए परिवार, दोस्तों, साइकेट्रिस्ट/ साइकोलोजिस्ट से परामर्श के सभी रास्ते खुल रखने चाहिए। मैं भी साइकोलोजिस्ट हूँ और खुद भी डिप्रेशन और दो बार आत्महत्या की कोशिश कर साइकेट्रिस्ट और परिवारजनों व मित्रों की मदद से उस अवसाद की स्थिति से निकली हूँ। हालात बेकाबू होने और अवसाद, आत्महत्या या किसी की हत्या के ख्याल आने पर साइकेट्रिस्ट और साइकोलोजिस्ट के साथ साथ परिवार, सहकर्मी, मित्रों का साथ भी बहुत ज़रूरी है, नहीं तो अवसाद कब सुसाइड और अन्य भयंकर मनोरोगों में बदल जाये कह नहीं सकते। अपनी प्रॉब्लम करीबी व्यक्तियों से शेयर करने से, बात करने से ही इलाज की राह पर जाय जा सकता है।
जो भी ट्रीटमेंट हो साइकेट्रिस्ट की देखरेख में ही दवा, काउंसलिंग, मैडिटेशन सब चलना चाहिए। OTC यानी केमिस्ट से खुद से दवा लेकर, या किसी अन्य पेशेंट की दवा को खुद पर आजमाना रोग को बढ़ा सकता है, इससे बचना चाहिए। यह केमिकल imbalance ही है जो ठीक हो जाता है, जैसे विटामिन की कमी विटामिन की गोलियों और उचित खानपान से ठीक होती है। छुपाने जैसी कोई बात नहीं इसमें। यह मनोरोग है, जो ठीक होता है 100%.
बेमेल विवाह, संयुक्त से एकाकी परिवार, पढ़ाई या नौकरी हर एक में सामंजस्य बनाने की चेष्टा तो करनी ही पड़ती है।  गृह-क्लेश या मतभेद के हालात न संभालने की स्थिति में संबंध-विच्छेद भी एक विकल्प है, न कि आत्महत्या।
नीलू ‘नीलपरी’ व्याख्याता, मनोवैज्ञानिक, लेखिका, कवयित्री, संपादिका हैं
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